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Friday 9 December 2011

कवि श्री हस्तीमल 'हस्ती' की रचना:

ऐसा नहीं कि जिस्म में सिमटा हुआ हूँ मैं,
नज़रे जहाँ तलक मेरी फैला हुआ हूँ मैं |

मिट्टी से पाटने की हुई जब से कोशिशे,
तब से तो और  ज्यादा ही गहरा हुआ हूँ मैं |

कितनी जुदा है मेरी बनावट भी दोस्तों,
देखो तो बद्दुआओ से अच्छा  हुआ हूँ मैं |

सी लो मुझे भी प्यार के धागों से दोस्तों,
कहते है लोग थोड़ा सा उधड़ा  हुआ हूँ मैं |
  

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