कवि श्री हस्तीमल 'हस्ती' की रचना:
ऐसा नहीं कि जिस्म में सिमटा हुआ हूँ मैं,
नज़रे जहाँ तलक मेरी फैला हुआ हूँ मैं |
मिट्टी से पाटने की हुई जब से कोशिशे,
तब से तो और ज्यादा ही गहरा हुआ हूँ मैं |
कितनी जुदा है मेरी बनावट भी दोस्तों,
देखो तो बद्दुआओ से अच्छा हुआ हूँ मैं |
सी लो मुझे भी प्यार के धागों से दोस्तों,
कहते है लोग थोड़ा सा उधड़ा हुआ हूँ मैं |
ऐसा नहीं कि जिस्म में सिमटा हुआ हूँ मैं,
नज़रे जहाँ तलक मेरी फैला हुआ हूँ मैं |
मिट्टी से पाटने की हुई जब से कोशिशे,
तब से तो और ज्यादा ही गहरा हुआ हूँ मैं |
कितनी जुदा है मेरी बनावट भी दोस्तों,
देखो तो बद्दुआओ से अच्छा हुआ हूँ मैं |
सी लो मुझे भी प्यार के धागों से दोस्तों,
कहते है लोग थोड़ा सा उधड़ा हुआ हूँ मैं |